Saturday, 1 February 2025

पास आकर भी,रह गयीं थोड़ी दूरी थी









मेरी क़िशमत थी या तेरी मजबूरी थी

पास आकर भी,रह गयीं थोड़ी दूरी थी


कुछ ना बोला मैंने तो बस गले लगा लिया 

माफ़ क़रदेना तो अब उसकी मज़बूरी थी


एक उम्र हम खुदी को कोसते रहे

जबकि रिश्तों में थोड़ी कड़वाहट ज़रूरी थी


पीठ पर उसीने खंजर चला दिया

जिसकी आँखो में गहरायी बातो में कस्तूरी थी


कितने पर्वत जीत लिए कितने रण साध दिए

मेरी दुनिया फिर भी तेरे बिना अधूरी थी



4 comments:

  1. बहुत खूब ... बहुत हीनों बाद आपको पढ़ा अच्छा लगा ...

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  2. वाह! बहुत खूब!

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  3. कुछ ना बोला मैंने तो बस गले लगा लिया

    माफ़ क़रदेना तो अब उसकी मज़बूरी थी - कितनी प्यारी बात कही है! बहुत अच्छी रचना!

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