मेरी खिड़की से उतरती हैं
मेरे फर्श पर छा जाती हैं
एक किरण रोज़
मेरे अँधेरे खा जाती हैं....
आसमान जब बाहे फैलता हैं
घना बादल जब आँखे दिखता हैं
देखती हैं ओटो के बीच से
कोई बच्चा देखे जो आँखे मीच के,
कभी अलसाये तो लाल हो,
चाँदनी गालो पे जब गुलाल हो,
ख़ामोश हो तो नीली हैं,
शामें नारंगी सी कभी पीली हैं
वो फ़ूल पत्तो के आंसू पोछ दे,
नई रंगत उदास रातो को सुबह रोज़ दे
शामो को दुल्हन सा सुर्ख सजाती हैं
दिन में कपडों से नमी उड़ती हैं
मज़दूरों संग पसीने भी बहती हैंं
सर्दियों में सौंधी धूप बन जाती है,
एक किरण जो मेरी खिड़की से उतर आती हैं ....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-09-2020) को "स्वच्छ भारत! समृद्ध भारत!!" (चर्चा अंक-3837) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
वाह
ReplyDeleteवाह !बहुत ही सुंदर सृजन हमेशा की तरह।
ReplyDeleteसादर
सुन्दर प्रस्तुति
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ReplyDeleteDr सुनील के जफर जी, नमस्ते👏! आपकी इस कविता में विम्बों का बहुत सुंदर प्रयोग हुआ है। ये पंक्तियाँ:
ReplyDeleteएक किरण जो मेरी खिड़की से उतर आती हैं,
रोज मेरे अंधेरे खा जाती है। अद्भुत सृजन!
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सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 30 सितम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सर्दियों में सौंधी धूप बन जाती है,
ReplyDeleteएक किरण जो मेरी खिड़की से उतर आती हैं ..
बहुत सुंदर भावपूर्ण दृश्यात्मक रचना....
वाह!खूबसूरत सृजन ।
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ReplyDeleteवाह!लाज़वाब सृजन।
ReplyDeleteमेरी खिड़की से उतरती हैं
मेरे फर्श पर छा जाती हैं
एक किरण रोज़
मेरे अँधेरे खा जाती हैं....वाह!