Thursday, 17 September 2020

तू जो मुझे ज़ी लेती थोड़ा,तो मर जाती...








ऐसे ना थे नसीब की ज़िंदगी सवर जाती,
यू न उजड़ती तो किसी और तरह उजड़ जाती..

ख़ून के से खूट पी ता रहा उम्र भर,
तू जो मुझे ज़ी लेती थोड़ा,तो मर जाती,

बादल,पँछी,फूल,फ़िज़ाये और मुस्कान तेरी,
बहार मेरे गाँव ना आती तो किधर जाती,

भूख़ से बिलखते रहे बच्चे रात भर,
दो दाने मिल जाते तो मज़बूरी घर जाती,

गरीब की कलम में जिंदा हैं लब्जो की सच्चाई,
दौलत का घुन लगता तो नज़्म सारी सड़ जाती .....

©dr. zafar

9 comments:

  1. गरीब की कलम में जिंदा हैं लब्जो की सच्चाई,
    दौलत का घुन लगता तो नज़्म सारी सड़ जाती .....
    बहुत खूब!

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 18 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१९-०९-२०२०) को 'अच्छा आदम' (चर्चा अंक-३८२९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  4. गरीब की कलम में जिंदा हैं लब्जो की सच्चाई,
    दौलत का घुन लगता तो नज़्म सारी सड़ जाती
    वाह!!!
    लाजवाब।

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  5. कोरोना काल में ब्लॉग पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाया।
    थोड़ी उलझने थीं, मौते थी बहुत
    दोनों आग से बचना मुश्किल था बहुत
    शज़र कम लगाए थे आदमी ज्यादा उगे
    दाह करते क्या आदमी का आदमी से
    हर खाली जगह पर मकां ओ मकीं उगे
    दफ़नाते क्या आसमां में
    बैचेनी की घुटन थी बहुत
    साँसों पर कफ़न थे बहुत
    तब भी मरना मुहाल था बहुत
    अब जिंदगी को मार के जीन है बहुत।
    खैर...
    शेर बेहतरीन है
    आपसे बात करनी थी
    कॉन्टेक्ट नम्बर मेरे ब्लॉग पर मिल जाएंगे... अगर आप चाहो तो।
    आभार



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