चट्टाने टूट जाती हैं समुन्दर डूब जाते हैं
कभी-कभी वो भी हमसे तबियत पूछ जाते हैं,
बहुत दिनों बाद गाँव आया तो एहसास हुआ,
झुर्रियों में सब शिक़वे शिकायत छुप जाते हैं
बिजलियों की सजिश या बादलो की शरारत हैं,
मेरे पुश्तें भरी बारिशो में ही टूट जाते हैं,
मैं सदियों ख़्वाहिशों अरमानो को तसल्ली देता हूँ,
वो एक मुस्कुराहट से सारी समझदारी लूट जाते हैं,
जब मैं चुप रहूँ तो नेक हूँ शरीफ़ हूँ वतनपरस्त हूँ,
जरा सा मुँह खो दु तो बड़े लोग रूठ जाते हैं....
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (०९-११ -२०१९ ) को "आज सुखद संयोग" (चर्चा अंक-३५१४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
वाह बहुत सुंदर लिखा आपने
ReplyDeleteमैं सदियों ख्वाइशों अरमानों को... वाह। ये शेर मेरे पसंदीदा में एक हो गया है।
ReplyDeleteजरा सा मुँह खोल दूं तो बड़े... कमाल है भई। वाह।
कटु सत्य को प्यार से परोस दिया है।
मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है👉👉 जागृत आँख