तीर सारे मेरे तरकस के बेकार गये,
हम दीवाने आकर इस पार,क्यो उस पार गये,
रौशनी के सौदागर जुगनुओ से हार गये
साथ में कश्ती साहिल को पा भी जाती
तुम तो हमको मझधार मैं उतार गये,
वो मुसाफिर जिनकी नज़र चाँद पर थी
कदमो तले कितने चिरागों को मार गये,
गाँव में जब जब आमो पे बौर लगे
चचा शहर में दो चार पेटी उतार गये,
बंद खिड़की दरवाजों में मैंने खुद को छिपा लिया
ग़रीबी में ऐसे कितने ही त्यौहार गये,
उधर में जिंदगी बनाने में मुशरुख था,
इधर तुम पीछे,ज़िन्दगी उजाड़ गये,
गाँव में कितने अपने स्वर्ग सिधार गये,
गाँव में कितने अपने स्वर्ग सिधार गये,
मेहनतो की नीद मेरी शामो पर भारी थी
आराम की रोटी,नीद की गोलियों में उतार गये,
कल सितारों की महफ़िल से क़तरा ज़मी पे गिरा ,
हम नींद में ही अपनी दूनिया उजाड़ गये।
वो मुसाफिर जिनकी नज़र चाँद पर थी
ReplyDeleteकदमो तले कितने चिरागों को मार गये ..
बहुत खूब ... गज़ब का शेर है जनाब ... पूरी ग़ज़ल कमाल है ...