मांग कोई सुनी सजा के
पुष्प मरुस्थल में खिला के
फिर कोई संकल्प उठा के
अब मैं क्या करूँगा
चक्रव्यूह जब तोड़ न पाया
लोह भुजा का निचोड़ न पाया
युद्ध अब जीत जीता के,
सूरज को दिया दिख के,
नचिकेता के हल बता के
अब मैं क्या करूँगा
आँख में जब कंकड़ फसा हैं,
राख़ में शोला दबा हैं,
तमस से दीपक डरा हैं
असत्य जब सौ धर्म से बड़ा हैं
परशुराम का गांडीव उठाके
इंद्रा का सिंहासन हिला के
भागीरथी से धरा धुला के
अब मैं क्या करूँगा....
यूँ परिस्थितियों से हारकर
ReplyDeleteमन के उजाले सारे झाड़कर
शस्त्र को धरती में गाड़कर
बिना लड़े स्वाभिमान मारकर
तुम्हें आर्दश मान बैठे
अपनी छवि आईने में देखकर
अब तुम क्या कहोगे...?
अब तुम क्या ही करोगे..?
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सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १७ जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद 🙏🙏🙏
ReplyDeleteनिराशा में भी एक आशा छुपी हुई होती है ।
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