शाम से दिल में सुलग रहा कोई,
बुझती हुई लकड़ियों में पक रहा कोई,
बुझती हुई लकड़ियों में पक रहा कोई,
हज़ार बार उम्मीद दम तोड़ती रही हैं,
फिरभी दस्तक पर सज रहा कोई,
फिरभी दस्तक पर सज रहा कोई,
यू तो कबसे रोना शिश्कना छोड़ चुका हूं,
मेरे सब्र को बेसब्री से तक रहा कोई,
मेरे सब्र को बेसब्री से तक रहा कोई,
ग़ज़ब की बेचैनी और दूर तक हैं सन्नाटा,
और शर्मा के मेरी बाँहों में सिमट रहा कोई,
और शर्मा के मेरी बाँहों में सिमट रहा कोई,
जबके खुदको तेरे मुताबिक़ बना लिया हैं,
अपनी बातो से ही पीछे हट रहा कोई,
अपनी बातो से ही पीछे हट रहा कोई,
कोई आरज़ू न कोई ख्वाहिश हैं बाकी,
फिर भी उम्मीद बनकर दिल में बस रहा कोई,
फिर भी उम्मीद बनकर दिल में बस रहा कोई,
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