Friday, 4 January 2019

बहुत गरूर था हमे,आसमानों में आशिया बनाना था....






बहुत गरूर था हमे,आसमानों में आशिया बनाना था,
मगर किश्मत में टूटकर पंख,बस फड़फड़ाना था,



लाख मुसीबतों को जीत,जैसे ही मंज़िल को पाना था,
तमाम कमज़ोरियों को उसी वक़्त रास्ते पे आ जाना था,
सिर फोड़े,दुनिया से टकराये,कितने घूट ज़हर निगल आये,
हाथो में जो ना था,उसे मिलकर भी छूट ही जाना था,
कौन सी नाराज़गी थी जिसका हल दो जहां में नही,
बस एक बार तुम्हे प्यार से बुलाकर गले लगाना था,
अभी लगा था बौर और तुमने हल चला दिया,
थोड़ी देर में किसान की मेहनत,आढतियों का खज़ाना था,
कौन अब अज़ानों के फैसलों का इंतज़ार करता,
जिन्हें जुठ पता था उन्हें जिंदा ही दफ़नाना था,
तुम क्यो हर शै में फलसफ़ा ए कुदरत ढूंढते हो,
गोया ऐसे ही तो जीना था ऐसे ही मर जाना था...

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