Wednesday, 4 February 2015

परदेश में यू ना किसी की बसर हो....

परदेश में यू ना किसी की बसर हो
ना पेट को रोटी ना रहने को घर हो

 जिस तरह भटकता हूँ आजकल
जिंदगी किसीकी ना दरबदर हो
सुना हैं मुस्करा कर भी मिलता हैं
हम पर भी कभी इनायतें नज़र हो
जिंदा रहने का बस यही उसूल हैं
जुबान जहर दिल फकद पत्थर हो
दीवारे कब घर हुआ करती हैं
रहने वाले भी कुछ मय्यसर हो
उसके रुखसार पर राधा की सी झलक
जाने कब ये दिल मुरलीधर हो

4 comments:

  1. जिस तरह भटकता हूँ आजकल
    जिंदगी किसीकी ना दरबदर हो ...
    बिलकुल ... जिंदगी जितना सलामात रहे उतना ही अच्छा ...
    लाजवाब शेर है जनाब ...

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  2. बहुत ही बेहतरीन रचना। पढ़कर आनंद आ गया।

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