Friday, 26 September 2014

तीर सारे मेरे तरकस के बेकार गये

तीर सारे मेरे तरकस के बेकार गये,
हम दीवाने आकर इस पार,क्यो उस पार गये,

रौशनी के सौदागर जुगनुओ से हार गये


साथ में कश्ती साहिल को पा भी जाती
तुम तो हमको मझधार मैं उतार गये,

वो मुसाफिर जिनकी नज़र चाँद पर थी
कदमो तले कितने चिरागों को मार गये,

गाँव में जब जब आमो पे बौर लगे
चचा शहर में दो चार पेटी उतार गये,

बंद खिड़की दरवाजों में मैंने खुद को छिपा लिया
ग़रीबी में ऐसे कितने ही त्यौहार गये,

उधर में जिंदगी बनाने में मुशरुख था,
इधर तुम पीछे,ज़िन्दगी उजाड़ गये,
गाँव में कितने अपने स्वर्ग सिधार गये,

मेहनतो की नीद मेरी शामो पर भारी थी
आराम की रोटी,नीद की गोलियों में उतार गये,
कल सितारों की महफ़िल से क़तरा ज़मी पे गिरा ,
हम नींद  में ही अपनी दूनिया उजाड़ गये।

Friday, 19 September 2014

मुझे कतल करने को खंज़र क्यों माँगा

मुझे कतल करने को खंज़र क्यों माँगा
प्यास इतनी सी थी तो समुंदर क्यों माँगा

में इन्कलाब हू आवामी दिलो में बसता हूँ
मुझे मिटाने तो मेरा सर क्यों माँगा

जिसने हारकर दुनिया जीत भी जीत ली थी
मांगना था तो पुरुराज मागते सिकंदर क्यों माँगा

बुनियाद रखी हैं लाशो पर कौमी दंगो ने,
अहले सहारनपुर मिरे खुदा को ऐसा घर क्यों माँगा

दोनों जहान मेरे,मैं ज़ा भी तुमपे निशार करता हूँ
फूल भी मांग सकते थे तुमने नश्तर क्यों माँगा

जख्म हर सर पर खून हर चौराहे पर हैं
हैरा हूँ इंसा से इबादत में पत्थर क्यों माँगा...