Saturday 27 April 2024

कल रात फिर मिले कुछ साये…

 





कल रात फिर मिले कुछ साये,

वही दोस्त बैठें बतियायें,

जाम से जाम टकरायें..

देर तक हुड़दंग से जागीं आँखें

सुबह चाय की चुस्कियों में लड़खड़ायें

कल रात फिर मिले कुछ साये..


दिल्ली की इस दौड़ धूप में

रौनक़ों की इस ऊब में

किसको है अब वक़्त

गल -सड़ रहे है सब रब्त

वो मिले तो कुछ पुराने एहसास लौट आये

जैसे ख़ुद को भी हम याद आये,

बातें वही गिनी गिनाई

छोटी बातों पर बड़ी कही-सुनायीं

अस्त-व्यस्त कमरा बिखरे सारे जज़्बात,

कुछ रोमानी गाने सुनें

कुछ पुराने नाम बुदबुदाये..

कल रात फिर मिले कुछ साये..


Wednesday 17 April 2024

वो ज़ालिम एक दिन बेनकाब होगा..






चित्रगुप्त के बही से सबका हिसाब होगा,
वो ज़ालिम एक दिन बेनकाब होगा,

आप  हवाई दौरा बाढ़ का करके क्या करोगे
नेताजी आपका वक़्त बेकार खराब होगा,

हमे रोजी और रोजगार में ही उलझा रखो,
पेट भर गया तो मुँह में इंक़लाब होगा,

उसीके साथ दफन हैं जुल्म की सारी सच्चाई ,
पंचनामे में तो वही घिसा- पिटा जवाब होगा,

दिन भर इधर उधर जो मज़लूम को टहलाते रहे,
रामदीन की जेब में बाबूओं के ज़ुल्म का महराब होगा,

Thursday 11 April 2024

अलग-अलग हम कितने अलग है…


 




साथ में तुझमें-मुझमें ही सब है

ज़बक़े अलग-अलग हम कितने अलग है,


सुबह एक ही रंग में रगीं है

शामें सब एक आग़ोश में ढकीं है

एक ही ख़्वाब सजाते है

एक उम्मीद पे जिये जाते है

पसंद नापसंद सब एक हो जाती है

साँसे एक ही धुन गुनगुनातीं है

एक ही रस्क एक ही तलब है

ज़बक़े अलग-अलग हम कितने अलग है


एक परिवेश से तुम आती हो

एक मेरा घर परिवार है

मेरे पापा की नौकरी है

तुम्हारे खानदान का व्यापार है

तुमको चाय में चीनी पसंद है

मैं खाने में नमक कम खाता हूँ

तुम सुबह जल्दी उठती हो

मैं देर से नहाता हूँ

तुम को पुराने नग़मे पसंद है

मैं ग़ज़लें गुनग़ुनाता हूँ

फिर भी जब हम साथ होते है

कितने जुड़े अपने जज्बात होते है

तेरी हर बात पे मेरी 

मेरी हर बात पर तेरी ही झलक है

ज़बक़े अलग-अलग हम कितने अलग है.

Saturday 6 April 2024

वो मैं नहीं था ..

 





वो मैं नहीं था ..

या ये मैं नहीं हूँ

एक वक़्त से मैं इसी उधेड़बून में हूँ

कैसे कैसे लम्हों की परते चड़ी

साप ने जैसे बदल ली काचूली

हालत बदलें उसूल बदल गये

मज़बूरी की सूली पे सब एकसाथ चड़ गये

वही मैं था

दुनिया बदलने वाला था

ये बेकसी का मंज़र उजड़ने वाला था

ख़ुद पर ग़ुरूर था

या  कम अकली में चूर था

फिर रस्तों बस्तों में खो गया

पराया शौक़ पराया रसको का हो गया

लड़ पड़ते थे जिन बातो पर

अब मलाल नहीं,

कोई ज़िद नहीं 

कोई सवाल नहीं,

वक़्त की चक्की में पिस्ता जाता हूँ

इस भीड़ में घुलता जाता हूँ

कैसे कह दूँ

तुम जो थे वही मैं हूँ,

यही मैं हूँ

या ये नहीं मैं हूँ ……