Friday 15 May 2015

काँटो की माला कितनी इस उपवन में अब भी बाकी हैं..


कितना दुःख,कितना व्योग इस जीवन मेंअब भी बाक़ी हैं
काँटो की माला कितनी इस उपवन में अब भी बाकी हैं..


गांव त्यागकर,माना हमने बस विसपान किया,
कुछ शीतलता किन्तु तेरे इस चन्दन में अब भी बाकी हैं

कोई कठिनता कोई कष्ट जीवन से पार नही हैं,
एक सरलता हर उलझन में मित्रो अब भी बाकी हैं.

उसकी ना में यू तो स्वप्न सारे स्वर्ग सिधार गये,
अमिट छवि सी,एक मन मंदिर में अब भी बाकी हैं

सिंदूर और श्रृंगार नया हैं,बातो का भी व्यवहार नया हैं,
मेरी कविता,पर तेरे कंगन की खनखन में अब भी बाकी हैं.....

7 comments:

  1. कितना दुःख,कितना व्योग इस जीवन मेंअब भी बाक़ी हैं
    काँटो की माला कितनी इस उपवन में अब भी बाकी हैं..
    सच कहा है जफ़र साहब .. जीवन बहुत छोटा है दुःख बहुत लम्बे हैं ... इनको भोगना कहाँ संभव होता है ... बहुत गहरे भाव हैं इस रचना में ...

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  2. शानदार और मार्मिक भी। बहुत ही अच्‍छा लेखन।

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  3. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  4. कोई कठिनता कोई कष्ट जीवन से पार नही हैं,
    एक सरलता हर उलझन में मित्रो अब भी बाकी हैं.
    बहुत सुंदर।

    निराशा के बीच आशा की किरण सी गज़ल।

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  5. उसकी ना में यू तो स्वप्न सारे स्वर्ग सिधार गये,
    अमिट छवि सी,एक मन मंदिर में अब भी बाकी हैं
    कभी न भुलाए जाने बाले शब्द
    http://savanxxx.blogspot.in

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  6. बहुत ही शानदार गज़ल की प्रस्‍तुति।

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  7. बहुत खूब। जफर भाई ब्‍लाग पर सक्रिय लेखन करते रहें। जितना ज्‍यादा समय बिताएंगें उतना ही ज्‍यादा सीखेंगें। आगे चल कर ब्‍लाग पर विज्ञापन भी मिल सकते हैं।

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