जर्रा-जर्रा निकल रही
साँझ ढले सूरज संग ढल रही
भोर की तुषार धूप से फ़िघल रही
ज़िंदगी कैसे हाथ से फिसल रही..
स्वप्न हुए ठेर है
रेखाओ के सब फेर है
संकेत है या संघर्ष है
हर मार्ग में बस गर्द है
हार ही हार है
प्रलय का अंधकार है
दुखों की आँधी चल रही
ज़िंदगी कैसे हाथ से फिसल रही…
तोड़ दूँ गाडिव या तीर अंतिम चलाऊ
हे पार्थ मैं किस ओर जाऊ
मतस्य यत्र कौन भेद देगा
धारा विरोध कौन बहेगा
चक्र यूही चलता रहेगा
गोवर्धन कौन धरेगा
सांथ हाथ छोड़ गये
भवर दिशा-पथ मोड़ गये
अपनों द्वारा छला गया
स्वार्थ संबंधों में पला गया
आस है ना आक्रोश है
परस्पर मुझमें ही कोई विद्रोहं है
अतीत से त्रुटियो की कालिख़
भाविष्य के प्रयासों में मल रही,
ज़िंदगी कैसे हाथ से फिसल रही…
बेहतरीन सृजन!
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