Saturday 9 September 2017

वो जो आँख में चुभता रहता हैं


वो जो आँख में चुभता रहता हैं
जिन्दा हैं भी,
मसलसल मरता रहता हैं.
कुछ मज़बूरी कुछ कमज़ोरी
कुछ कमशिनी में
फैसला जो हम तुम ले ना सके,
जज़्बात को कह ना सके
आंसू जो पी गए,दर्द जो सह गए,
रिश्तों के  पिजरे में तुम बंद,
एक हालात में कैद हम रह गए
अब तो बस एक एहसास सा घुटता रहता हैं
वो जो आँख में चुभता रहता हैं....

रात भर स्टेशन पर आँख रख कर
भारी दिल और खाली हाथ
लेकर जो लौटa था,
उसी दिन से जिसने पहन लिया मुखौटा था,
दस्तुरो के बिस्तर पर वो घुथता हैं,
दुनियादारी के पाटो पर पिसता हैं,
मरता हैं हर शाम
जाने कैसे हर सुबह फिर उगता हैं,
उसी कशिश उस तड़फ को तलाश करता हैं
ऐशो आराम तमाम,में जो बनवास करता हैं
अंगारो पर चलता हैं,
तलवारो पर भी कटता रहता हैं
वो जो आँख में चुभता रहता हैं....

कदम वो हमने क्यों नही उठाया,
वादा क्यों नही निभाया
होसला क्यों नही दिखया
कशिश क्या ये कम नही होगी
उम्मीदे क्या क्या खतम नही होगी
ताले ये क्या नही टूटेंगे
दरवाजे क्या नही खुलेंगे
चिंगारी क्या ये नही बुझेगी
शोले क्या ये नही भड़केगे
फिर धुँआ सा ये क्यों उठता रहता हैं
वो जो आँख में चुभता रहता हैं......

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