दर्द में डूब कर कुछ करार आया हैं,
जुबां पर सच पहली बार आया हैं...
जुबां पर सच पहली बार आया हैं...
मंज़िले अभी दूर हैं करवा बढ़ता रहे,
बिजलिया गिरी नही,बस अंधेरा सा छाया हैं,
बिजलिया गिरी नही,बस अंधेरा सा छाया हैं,
हौसला न तोड़ना,हाथ अब ना छोड़ना,
रात अभी बाकी हैं,कोई सितारा टिमटिमाया हैं,
रात अभी बाकी हैं,कोई सितारा टिमटिमाया हैं,
घर हमारे छीने हैं,सकुनो चैन तबाह किये,
इन हसरतो ने हमे कितनी आँख रुलाया हैं...
इन हसरतो ने हमे कितनी आँख रुलाया हैं...
कौम कोई हो,हुकूमते कैसी रहे,
मज़दूर किसान बस, बोझ ढोता आया हैं,
मज़दूर किसान बस, बोझ ढोता आया हैं,
तुम अग़र यकीं करो,चाँद तारे उतार दू,
हमने अपने हौसलों को कितना दबाया हैं..
हमने अपने हौसलों को कितना दबाया हैं..
बहुत खूब ... लाजवाब शेर हैं ज़फर जी ...
ReplyDeleteताजगी भए शेर दिल में उतर रहे हैं सीधे ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (09-04-2019) को "मतदान करो" (चर्चा अंक-3300) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/04/2019 की बुलेटिन, " ८ अप्रैल - बहरों को सुनाने के लिये किए गए धमाके का दिन - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब ,लाजबाब... ,सादर नमस्कार
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 10 अप्रैल 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!!लाजवाब!!
ReplyDeleteवाहह्हह... बहुत खूब..डॉ.साहब...बेहतरीन शेर और लाज़वाब गज़ल👌
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर आदरणीय
ReplyDeleteसादर
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत लाजवाब....
अलग अलग अंदाज के शेर, बेहतरीन रचना
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