Wednesday 2 October 2019

सच लिख़ने की इस दौर में क़लम को ताक़त ना हुयीं...







दर्द में डूब के भी ख़िलाफ़त ना हुयी,
ना हुयीं हमें तुमसे शिकायत ना हुयीं..


रब्त उसके ने हज़ार बंदिशो पे मज़बूर किया
इतनी शर्तों पे हमसे मोहब्बत ना हुयीं,

हज़ार फ़ोन करो,लाख़ इल्तेज़ा, कऱोड नख़रे,
गोया कभी इतनी मेरी जान को आफ़त ना हुयीं,

देश परदेश में,तेरी उम्मीद पर मैं टिका रहा,
एक मासूम दिल की तुझसे हिफ़ाज़द ना हुयी,

नादान बेक़सूर टूट कर बर्बाद हुआ जाता हैं,
और क्या बाकी हैं ख़ुदा क्या अभी क़यामत ना हुयी,

घोसलें उजाड़ के जब गौरैया भी उड़ गयीं,
लाख कोशिश से भी गांव के घर मे बसावत ना हुयीं,

ईमाँ अपना बेंच के दुकाँ अपनी चलाते हैं,
सच लिख़ने की इस दौर में क़लम को ताक़त ना हुयीं....!!!


8 comments:

  1. एक आप हैं जिनकी रचना पढ़कर लुफ़्त लेते हैं।
    "....जान को आफ़त ना हुई।" ये शेर मुझे बहोत शानदार लगा। मॉडर्न ग़ज़ल की सुगंध है इस शेर में।
    …… घर में बसावट ना हुई।" हमारे पक्के मकां किसी के आशियाने उजड़ने की निशानी भी है।
    लास्ट वाला शेर जबरदस्त है। सच्चे लेखक है ही नहीं जो अपने लेखन में ईमानदारी बरते।
    सारी ग़ज़ल बेहतरीन है।

    सुझाव हैं आपको पसंद आये तो...
    ईमान को ईमाँ लिख रहे हो तो दुकान को दुकाँ किया जा सकता है।
    हिफ़ाजद को हिफाज़त कर लेवें।
    बृज टोन में बसावट को बसावत भी लिखा गया है ...इसे बसावत लिख सकते हैं। इससे शायद ग़ज़ल और निखर जाए।
    बाकी आप बेहतर जानते हो।

    आभार।

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    1. बहुत बहुत आभार रोहितास जी।
      माफी चाहता हूँ।इंग्लिश के इस दौर में मेरी हिंदी बहुत कमजोर हो गयी हैं।सुधार करने का प्रयास कर रहा हूँ।आप जैसों का सहयोग बहुत उपयोगी है।आभार

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  2. कलम को ताकत न हुयी ...
    सच है ... जब हर कोई ईमान बेच रहा हो तो कलम के सिपाही भी शामिल हैं उनमें ... बहुत लाजवाब शेर हैं सब के सब ...

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-10-2019) को   "नन्हा-सा पौधा तुलसी का"    (चर्चा अंक- 3478)     पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. हज़ार फ़ोन करो,लाख़ इल्तेज़ा, कऱोड नख़रे,
    गोया कभी इतनी मेरी जान को आफ़त ना हुयीं,

    क्या ख़ूब अंदाज़ है इश्क़ की बयानगी का... बेहतरीन !

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  5. देश परदेश में,तेरी उम्मीद पर मैं टिका रहा,
    एक मासूम दिल की तुझसे हिफ़ाज़द ना हुयी,

    नादान बेक़सूर टूट कर बर्बाद हुआ जाता हैं,
    और क्या बाकी हैं ख़ुदा क्या अभी क़यामत ना हुयी... वाह !शब्दों से परे एहसास का मर्म लिये बेहतरीन सृजन सर
    सादर

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  6. देश परदेश में,तेरी उम्मीद पर मैं टिका रहा,
    एक मासूम दिल की तुझसे हिफ़ाज़द ना हुयी। बहुत खूब।

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  7. ईमाँ अपना बेंच के दुकाँ अपनी चलाते हैं,
    सच लिख़ने की इस दौर में क़लम को ताक़त ना हुयीं....!!!

    बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति

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