ना थे जो सुलझानें वो मसले कब सुलझा सके,
यही था गर होना नसीब में, तो हो के रहा,
गले लगाने उठे थे हाथ भी न मिला सके,
थक कर हार गये सारे जुगनू अंधेरों से,
सूरज का वादा करके चिंगारी भी ना दिखा सके
देर रात तक सोचता रहा मैं ख्यालो में,
मिटा दिया चिरागों को जब उजालो से ना लड़ सके ,
बंदिश लगा के होठो पर जब कुछ न हुआ
कुचल दिया गाड़ी से,जिनकी आवाज़ ना दबा सके..
वाह्ह... बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार 9 सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसादर
वाह वाह वाह, बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ
ReplyDeleteसुंदर
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