Sunday 8 September 2019

मेरी क़लम से फिर इंक़लाब लिखाते क्यो हो....








फ़िज़ूल की बातों में सर अपना खपाते क्यो हो,
उलझने किसको नही इतना जताते क्यो हो,



गुमनामी के अंधेरो में खो जायूँगा कभी राख़ बनकर,
इतनी शिद्दत से मेरा नाम अपने साथ लिखवाते क्यो हो,


मुश्किल हैं मेरे साथ रहना मग़रूर बेकार हूँ मैं,
फिर नंम्बर बदल फोन की घण्टियाँ बजाते क्यो हो,


यहां भीड़ हैं गंदगी हैं लोगो को तहज़ीब नही,
इतना परेसा हो तो इन बस्तियों में आते क्यो हो,


गर कज़ोर गरीबो मज़लूमो का कोई वजूद नही,
हमारे जुलूसों लाल सलामो से इतना डर जाते क्यो हो,


जानते हो,मसले मंदिरो मस्ज़िदों के कुछ नही देने वाले
फिर वोटरों को हर बार झुठ बहलाते क्यो हो,



जबके तुमने शहादत "आज़ाद "भगत की भी जाया की
मेरी क़लम से फिर  इंक़लाब लिखाते क्यो हो.....!!!

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-09-2019) को     "स्वर-व्यञ्जन ही तो है जीवन"  (चर्चा अंक- 3454)  पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत लाजवाब शेर ...
    आज का सच छुपा है ... तीखी बात को रखा है सहज ही ...

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना 11 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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