परेशां ज़िन्दगी किस कदर हो गयी
जुबा तुम्हारी जबसे नश्तर हो गयी,
जुबा तुम्हारी जबसे नश्तर हो गयी,
ज़िंदगी की दौड़ ने चेहरा मेरा सुखा दिया
उम्र 30 में जाने कैसे सत्तर हो गयी,
उम्र 30 में जाने कैसे सत्तर हो गयी,
एक दौर से जो आवारा थी देर रात तक,
नादानियां सुबह से आजकल दफ्तर हो गयी,
नादानियां सुबह से आजकल दफ्तर हो गयी,
दूरिया तो फ़ोन पे मोम सी पिघलती थी,
नज़दीकियां अकड़ कर पत्थर हो गयी,
नज़दीकियां अकड़ कर पत्थर हो गयी,
मरकज़ भी बंदूक से मरहम लगाता हैं,
गोया समझदारी सारी "बस्तर"हो गयी,
गोया समझदारी सारी "बस्तर"हो गयी,
तेरे आसमान से नज़र आए जर्रा ,मुमकिन नहीं
चिराग हू गुरुवत का,हैसियत तेरी अख्तर हो गयी,
चिराग हू गुरुवत का,हैसियत तेरी अख्तर हो गयी,
अम्मा आज भी तड़के चूल्हे पे रोटियां पकाती हैं,
बहुये घुघट में ही सारी,अफसर हो गयी.......!!!
बहुये घुघट में ही सारी,अफसर हो गयी.......!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-08-2018) को "सिमट गया संसार" (चर्चा अंक-3068) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद् सर .
Deleteथोड़ा व्यस्त रहा माफ़ी चाहता हूँ
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 19 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteshukriya sir
Deleteअम्मा आज भी तड़के चूल्हे पे...
ReplyDeleteदूरियां तो फोन पर मोम सी पिघलती थी...
उम्र 30 में जाने कैसे सत्तर हो गयी...
आधुनिकता का एक काला पक्ष है जो चित्रित नहीं किया जा सकता लेकिन उसको किसी रंगसाज के द्वारा कोरे कागज पर यूँ ही बैठे बैठे रंगों को उड़ेलना और उन रंगों में ब्रश मार देना।
बनी उस पेंटिंग को देख कर कोई रंगसाज की मनोदशा नहीं जान सकता और वो रंगसाज आप हैं।
उम्दा रचना।
धन्यवाद sir.अपने इतनी गहराई से कविता को पढ़ा समझा और विशेष रूप से भाव व्यक्त किये।आपका ये अंदाज और बयान दोनो निराले हैं।
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबेहतरीन 👌👌
ReplyDeleteउम्दा अस्आर।
ReplyDeleteसभी शेर लाजवाब।
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुंदर सारगर्भिता से परिपूर्ण हर अस्आर..
ReplyDeleteसमाजिकता और आधुनिकता के कश्मकश को बखूबी बयान
अम्मा आज भी तड़के चूल्हे पे रोटियां पकाती हैं,
बहुये घुघट में ही सारी..
आभार।
बढ़िया
ReplyDeleteवाह ...
ReplyDeleteअलग अंदाज़ के शेर ... बहुत ही कमाल की शेर हैं ...
कुछ जीवन की सच्चाइयों को सहज लिखा है ...
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद।
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