कितने करीब थे आज किस हद तक जुदा हैं,
ना तुझको खबर है ना मुझे पता हैं...
ना तुझको खबर है ना मुझे पता हैं...
जो सिर्फ आवाज़ से एहसास जान लेते थे
सुनाने को उनको अब चिल्लाना पड़ा हैं,
सुनाने को उनको अब चिल्लाना पड़ा हैं,
फ़ोन पे फ़क़द जुबा बोलती हैं और कान सुनते हैं
ऐसी गुफ्तगू से ख़ाक मसला हल हुआ हैं,
ऐसी गुफ्तगू से ख़ाक मसला हल हुआ हैं,
तेरी बुलंदी तेरी हैसियत तमाम शहर पे हावी हैं
एक खत मैने भी तेरे बंगले में रख दिया हैं,
एक खत मैने भी तेरे बंगले में रख दिया हैं,
आदमी तन्हा घुट घुट के मर रहा हैं आज भी
जबके हर ओर क़यामत का काफिला हैं,
जबके हर ओर क़यामत का काफिला हैं,
किसीने रात भर करवटे ही बस बदली हैं
अबके बरसात में ये घर कितना जला हैं,
अबके बरसात में ये घर कितना जला हैं,
लौट जाएंगे हम बस कुछ देर में खटखटाकर
तुमने कुंडी लगाकर जो कहना था कह दिया हैं,
तुमने कुंडी लगाकर जो कहना था कह दिया हैं,
कितनी मायूस और खामोश है ये मज़लिश
हमारा जुदा होना दुनिया पे कितना भारी पड़ा हैं...!!!
हमारा जुदा होना दुनिया पे कितना भारी पड़ा हैं...!!!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-08-2018) को "नेता बन जाओगे प्यारे" (चर्चा अंक-3071) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
संजीदा एहसासात की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति.
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