Monday, 24 September 2018

ये दो कमरे जो कभी घर न बन सके....


बहुत चाहते थे मगर हमसफर न बन सके,
ये दो कमरे जो कभी घर न बन सके,


यही था दोनो का फैसला तो सिर फोड़ना कैसा,
जो नही था तकदीर में,वो उमर भर न बन सके,

लाख चाहा आँख चुरा लू ज़माने भर की बेकारी से,
ग़रीब का हशर देख के पत्थर न बन सके,

ग़ज़ल की ख़ाक में ही दबे रहे सैकड़ो जंगी,
कई इंक़लाब मेरे ग़दर न बन सके,

चिता की सी आग में लेटे रहे दोनो रात भर,
अना के पत्थर टूट कर सुकू के बिस्तर न बन सके,

ये दुनिया की साजिश थी,मुक़द्दर की कमज़ोरी,
अपनी ज़िंदगी में कभी खुशी के मंज़र न बन सके,

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