Saturday, 29 September 2018

कोई मीरा अभी ये कंहा जान पायी हैं...




मैं ये कैसे कह दूँ गुलशन में बहार आयी हैं,
इन अंधेरों ने तो सौ ऑंख रात रुलाई है,


हर सलाह साज़िस हर प्याला फ़क़त ज़हर का घूँट यहाँ,
गोया कोई मीरा अभी ये कहाँ जान पायी है,

ग़ज़ब इत्तेफ़ाक़ है कमाल की परेशानी है,
जिस-जिस को चाबी दी उसीने घर पे सेंध लगायी हैं

धीरे-धीरे सिख पाओगे धीरे-धीरे ग़र्द सफ़ा होगी,
अभी तो तुमने पहले-पहल चोट खायीं है,

घर छूटा,संसार छूटा,बैठा हूँ तन्हाई में,
तेरे इस इश्क़ में जानम,और कितनी तबाही हैं,

शोलों पर चलकर मैंने जीना सीख़ जो लिया हैं,
देखो दुनिया में,अब मेरी कितनी वाह वा ही हैं,

आँख मेरी बहता दरिया,दिल ज़ज़्बातों का  समुन्दर है,
मैं इतना अमीर हुआ हूँ ,कैसे कह दूँ सनम हरजाई है,

एक चेहरा दुनियादारी को, रोज़ सुबह चुप ओढ़ लिया,
कई काली राते मैंने सुबह-सुबह ही बस दफ़नाई हैं,

 ग़र जुदाअंजाम थे इतने  तो मिलना ही क्यो था
तुमने जहा से किस्मत लिखाई थी मैंने वही से मिटायी हैं,

No comments:

Post a Comment